परिवेश और प्रवृत्तियाँ

कहानी का अर्थ परिभाषा विशेषताएँ
यहाँ हिन्दी के विद्वानों का कहानी के सन्दर्भ में विचार जानना आवश्यक है। अतः अब हम भारतीय विद्वानों के कहानी संबधी दृष्टिकोण पर विचार करते हैं। मुंशी प्रेमचन्द के अनुसार , “ कहानी (गल्प) एक रचना है , जिसमें जीवन के किसी एक अंग या मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य रहता है। उसके चरित्र , उसकी शैली तथा कथा - विन्यास सब उसी एक भाव को पुष्ट करते हैं। ”
- बाबू श्यामसुन्दर दास का मत है कि , “ आख्यायिका एक निश्चित लक्ष्य या प्रभाव को लेकर नाटकीय आख्यान है।"
- बाबू गुलाबराय का विचार है कि , “ छोटी कहानी एक स्वतः पूर्ण रचना है जिसमें एक तथ्य या प्रभाव को अग्रसर करने वाली व्यक्ति-केंद्रित घटना या घटनाओं के आवश्यक , परन्तु कुछ-कुछ अप्रत्ययाशित ढंग से उत्थान-पतन और मोड़ के साथ पात्रों के चरित्र पर प्रकाश डालने वाला कौतूहलपूर्ण वर्णन हो। ”
- इलाचन्द्र जोशी के अनुसार "जीवन का चक्र नाना परिस्थितियों के संघर्ष से उल्टा सीधा चलता रहता है। इस सुवृहत् चक्र की किसी विशेष परिस्थिति की स्वभाविक गति को प्रदर्शित करना ही कहानी की विशेषता है।"
- जयशंकर प्रसाद कहानी को सौन्दर्य की झलक का रस 'प्रदान करने वाली मानते हैं।
- रायकृष्णदास कहानी को ‘ किसी न किसी सत्य का उद्घाटन करने वाली तथा मनोरंजन करने वाली विधा कहते हैं।
- ' अज्ञेय ' कहानी को ' जीवन की प्रतिच्छाया ' मानते है तो जैनेन्द्र की कोशिश परिवेश और प्रवृत्तियाँ करने वाली एक भूख ' कहते हैं। कुमार ' निरन्तर समाधान पाने
- ये सभी परिभाषाएँ भले ही कहानी के स्वरूप को पूर्णतः स्पष्ट नहीं करती हैं , परन्तु उसके किसी न किसी पक्ष को जरूर प्रदर्शित करती हैं। हम यह कह सकते हैं कि किसी साहित्य-विधा की कोई ऐसी परिभाषा देना मुश्किल है जो उसके सभी पक्षों का समावेश कर सके या उसके सभी रूपों का प्रतिनिधित्व कर सके। कहानी में साधारण से साधारण बातों का वर्णन हो सकता है , कोई भी साधारण घटना कैसे घटी , को कहानी का रूप दिया जा सकता है परन्तु कहानी अपने में पूर्ण और रोमांचक हो । जाहिर है कहानी मानव जीवन की घटनाओं और अनुभवों पर आधारित होती है जो समय के अनुरूप बदलते हैं ऐसे में कहानी की निश्चित परिभाषा से अधिक उसकी विशेषताओं को जानने का प्रयास करें।
कहानी की विशेषताएँ
उक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि कहानी में निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं
1. कहानी एक कथात्मक संक्षिप्त गद्य रचना है , अर्थात कहानी आकार में छोटी होती है जिसमें कथातत्व की प्रधानता होती है।
2. कहानी में ' प्रभावान्विति ' होती है अर्थात् कहानी में विषय के एकत्व प्रभावों की एकता का होना भी बहुत आवश्यक है।
3. कहानी ऐसी हो , जिसे बीस मिनट , एक घण्टा या एक बैठक में पढ़ा जा सके। 4. कौतूहल और मनोरंजन कहानी का आवश्यक गुण है।
5. कहानी में जीवन का यर्थाथ होता है , वह यर्थाथ जो कल्पित होते हुए भी सच्चा लगे ।
6. कहानी में जीवन के एक तथ्य का , एक संवेदना अथवा एक स्थिति का प्रभावपूर्ण चित्रण होता है।
7. कहानी में तीव्रता और गति आवश्यक है जिस कारण विद्वानों ने उसे 100 गज की दौड़ कहा है। अर्थात कहानी आरम्भ हो और शीघ्र ही समाप्त भी हो जाए।
8. कहानी में एक मूल भावना का विस्तार आख्यानात्मक शैली में होता है।
9. कहानी में प्रेरणा बिन्दु का विस्तार होता।
10. कहानी की रूपरेखा पूर्णतः स्पष्ट और सन्तुलित होती है।
11. कहानी में मनुष्य के पूर्ण जीवन नहीं बल्कि उसके चरित्र का एक अंग चित्रित होता है , इसमें घटनाएँ व्यक्ति केन्द्रित होती हैं।
12. कहानी अपने आप में पूर्ण होती है।
उक्त विशेषताओं को आप ध्यान से बार-बार परिवेश और प्रवृत्तियाँ पढ़कर कहानी के मूल भाव और रचना प्रक्रिया को समझ पायेंगे। इन सब लक्षणों या विशेषताओं को ध्यान में रखकर हम आसान शब्दों में कह सकते हैं कि-- “ कहानी कथातत्व प्रधान ऐसा खण्ड या प्रबन्धात्मक गद्य रूप है , जिसमें जीवन के किसी एक अंश , एक स्थिति या तथ्य का संवेदना के साथ स्वतः पूर्ण और प्रभावशाली चित्रण किया जाता है। किसी भी कहानी पर विचार करने से पहले उसे पहचानना आवश्यक होता है। आगे के पाठों में हम इस पर और विस्तार से बात करेंगे।
SAHITYASETU
नाटक एक ऐसी दृश्यकाव्य विधा है, जिसमें अनुकृति, अभिनय नृत्य, संगीत, संवाद और रस का नेत्रेन्द्रिय और श्रवणेन्द्रिय के माध्यम से लोकोत्तर आनंद उपलब्ध किया जाता है । नाटक दृश्य काव्य होने के नाते उसमें शिल्प एवं भाषा-संवादों पर विशेष बल दिया जाता है । शिल्प विधान के द्वारा नाटककार अपने नाटक को रंगमंच और समय के अनुरूप बनाकर पाठकों तथा प्रेक्षकों पर अपेक्षित प्रभाव डालने के योग्य बना पाते हैं । शिल्प शब्द का सामान्य अर्थ कारीगरी, रचना- कौशल होता है । परंतु साहित्य जगत में शिल्प का महत्व कला से जोड़ा जा सकता है । डॉ. नरनारायण राय द्वारा उद्धृत कथन में सिद्धनाथ कुमार ने शिल्प के बारे में लिखा हैं कि- “शिल्प वह कुशलता है जिसके द्वारा किसी वस्तु या कृति में सौंदर्य की सृष्टि होती है ।”[1] शिल्प विधान को गहराई से समझाने का प्रयास डॉ. नरनारायण राय ने किया है, उनका कहना है कि- “कच्चे माल को नाटक की भाषा में वस्तु कहते हैं जिसका सर्व विदित रूप कथानक है और संवाद, भाषा-शैली, अभिनय की निर्दिष्ट गतियाँ, ध्वनि एवं प्रकाश विषयक विशिष्ट निर्देश वेशभूषा निरूपण आदि वे साधन हैं जिन साधनों से वह वस्तु को नये रूप में इस प्रकार गढ़ता है कि उसमें नये सौंदर्य की सृष्टि हो सके ।”[2]
समकालीन हिन्दी नाटकों का शिल्प जहाँ एक ओर अपने पूर्ववर्ति नाटकों की तुलना में एक दम भिन्न, बहुआयामी, प्रयोगशील और दृश्यत्व गुण प्रधान है, वही दूसरी ओर इस पर पाश्चात्य नाट्य-शिल्प और भारतीय स्तर पर फैले रंग आन्दोलन का भी प्रभाव देखा जा सकता है ।
समकालीन हिन्दी नाटकों के शिल्प विधान की सबसे बड़ी विशेषता है, प्रयोगात्मक होना । नाटकों में प्रयोगों के अधिकाधिक होने के कारण तत्कालीन नाटक सामान्य मनुष्य के जीवन की व्याख्या करने लगा है । नाटक के अन्दर समय-समय पर परिवर्तन आता रहा है । प्रयोग विकास का स्वभाव है । प्रयोग, नव सृजन का धर्म होता है, इसलिए इसे प्रयोग-धर्मिता भी कहते हैं । हिन्दी नाटक-लेखन और रंगमंच सापेक्ष रुढ़ियों की नव प्रयोगशील प्रवृत्तियों के दौर से गुजर रहा है । प्रयोग के अनेक स्तरों से गुजर कर हिन्दी नाटक के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है । कथ्य और शिल्प दोनों में बदलाव आया है । इस बात परिवेश और प्रवृत्तियाँ से सहमत होकर डॉ.नीलिमा शर्मा द्वारा उद्धृत कथन में डॉ.चंद्र कहते है- “अब नाटक के लिए न स्थूल कथ्य चाहिए न काव्यात्मक भावुकता । अब तो नाटक यथार्थ की भूमि पर विचरने वाला आम आदमी है जिसे अपनी भाषा में अपनी बात पूरी ईमानदारी से कहनी है ।”[3]
समकालीन नाटकों के शिल्प की सब से बड़ी विशेषता है प्रयोग धर्मिता, जिसमें ऐतिहासिक-पौराणिक कथा को नये प्रयोग में समकालीन नाटककारों ने रखा है । नयी अनुभूति प्राचीन प्रतीकों की खोल ओढ़कर नाटकों के प्रदर्शन में अत्यन्त सुहावने दृश्य प्रस्तुत करती है । डॉ.लाल द्वारा रचित ‘एक सत्य हरिश्चन्द्र’ सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र के पौराणिक मिथक पर आधारित होते हुए भी समसामायिक स्थिति पर तीखा व्यंग्य करते हुए वर्तमान की अभिव्यक्त करता है । रोती एवं जीतन भी इसी बात का अनुभव करते हैं जीतन कहता है- जीतन-“ हम सब हरिश्चन्द्र हैं तुम्हारी सत्ताधारी राजनीति में । वहाँ राजा इन्द्र एक था, यहाँ राजा इन्द्र असंख्य हैं, पुलिस, अफसर, नेता, पूँजीपति, दलाल, गुण्डा, . यही है तुम्हारी राजनीति में ।”[4]
‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ नाटक मूलतः यथार्थवादी शैली तथा मनोवैज्ञानिक नाटक है, जिसमें सुरेन्द्र वर्मा ने ऐतिहासिक वातावरण में स्त्री-पुरूष के सम्बन्धों का विश्लेषण किया है । शिलवती कहती है-
शीलवती- “सब मिथ्या ! सब आडम्बर. सब पुस्तकीय ! ( उद्धत-सी) लेकिन मुझे पुस्तक नहीं जीना अब ! . मुझे जीवन जीना है ।”[5]
‘एक और द्रोणाचार्य’ नाटक में शंकर शेष ने महाभारत कालीन स्थितियों एवं पात्रों के माध्यम से आधुनिक परिवेश एवं चरित्रों को उद्घाटित करने का प्रयास किया है । एकलव्य और अर्जुन के संवादों में ये बात स्पष्ट हो जाती है –
एकलव्य- “आज आशीर्वाद दे रहे है या शाप ? . क्या आप इस अर्जुन से कभी उसका दाहिना हाथ मांग सकते हैं ? क्या आप भीम से उसकी भुजा मांग सकेंगे ?
अर्जुन- . इतिहास आपको कभी क्षमा नहीं करेगा ।”[6]
‘कबीरा खड़ा बजार में’ नाटक में भी भीष्म साहनी ने कबीर के माध्यम से आधुनिक व्यवस्था को उजागर किया है । स्वयं भीष्म साहनी भूमिका में लिकते है कि – “नाटक में उनके काल की धर्मान्धता, अनाचार, तानाशाही आदि के सामाजिक परिप्रेक्ष्य में उनके निर्भिक, सत्यान्वेषी, प्रखर व्यक्तित्व को दिखाने की कोशिश है।”7 इस प्रकार इतिहास या पौराणिक कथा के माध्यम से नये युग की बात कहने की कोशिश आलोच्य युग के नाटककारों ने की है ।
समकालीन नाटकों में लोककथा का भी भरपुर प्रयोग किया गया है । सुशीलकुमार सिंह के नाटक ‘सिंहासन खाली है’ मेँ एक कथा-रुढ़ी है- एक राजा ने न रहने पर दूसरे राजा की तलाश । नाटक के प्रारंभ में सूत्रधार घोशणा करता है कि सिंहासन खाली है । क्योंकि इस पर बैठने वाला राजा सत्य, अहिंसा और न्याय की हत्या करके भाग गया है । लोककथा शैली में मुद्राराक्षस कृत ‘आला अफसर’ मणिमधुकर कृत ‘दुलारीबाई’ भी महत्वपूर्ण लोक नाट्य शैली में लिखे गये नाटक हैं । कुल मिलाकर देखाजाय तो समकालीन हिन्दी नाटकों का कथा-शिल्प आधुनिक संवेदनाओं की स्थिति के अनुरूप सहज और स्वाभाविक है ।
संदर्भ संकेतः
1. नया नाटक उद्भव और विकास – डॉ. नरनारायण राय, पृ. 236
2. वही. पृ. 236
3. साठोत्तरी हिन्दी नाटक – डॉ. नीलिमा शर्मा, पृ. 25
4. एक सत्य हरिश्चन्द्र – डॉ. लाल, पृ. 57
5. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक – डॉ. सुरेन्द्र वर्मा, पृ. 74
6. एक और द्रोणाचार्य – डॉ. शंकर शेष, पृ. 54
7. कबिरा खड़ा बजार में – भीष्म साहनी, पृ. 12
रचनावली
जीवन-प्रयासों का साहित्य के अन्य विधाओं की अपेक्षा कविता में घटित होने की संभावनाएं अधिक होती हैं | घटना कोई भी हो वह अपने स्वरुप में समाज सापेक्ष होती है | समाज का अभिप्राय मनुष्य के संगठित समूह से है | घटनाएँ समाज में रहने वाले मनुष्य के साथ घटित होती हैं | इन्हें अक्सर सामाजिक घटनाओं के नाम से अभिहित किया जाता है | मनुष्य घटनाओं को वहन करता है, झेलता है | घटनाओं के वहन करने और झेलने की यह प्रवृत्ति समाज में घटित होती है | घटनाओं का घटित होना साश्वत है | इनको झेलना मनुष्य की नियति और समाज का स्वभाव होता है | स्वभाव में अपनाने की प्रवृत्ति प्रबल होती है तो नियति में मजबूरी का प्राधान्य होता है | कविता में ये सभी प्रवृत्तियाँ स्वभावतः विद्यमान होती हैं | यह इसलिए क्योंकि कवि घटना, समाज और मनुष्य का एक अविभाज्य अंग होता है | पहले वह मनुष्य है; फिर परिवेश और प्रवृत्तियाँ समाज है; और इन दोनों के मध्य घटित होने वाले घटनाओं का, भुक्तभोगी, वाहक और अंततः एक हद तक झेलने की प्रक्रिया में सबसे संवेदनशील व्यक्तित्व भी है | कविता के सम्बन्ध में इसीलिए कहा जाता है कि जिस कविता में मानव-जीवन की संगति-विसंगति, वेदना-संवेदना, दुःख-दर्द गहरे यथार्थ से जुड़कर न व्यंजित हुआ हो, वह कविता नहीं हो सकती, बाकी चाहे जो हो |
सामाजिक परिवेश का यथार्थ हमारे दैनिक जीवन में घटित होने वाली घटनाओं का साकार रूप होता है | हमारे जीवन की यह भी एक विशिष्ट विशेषता है कि जिस समय घटनाएँ घटित होती रहती हैं, हमें इनका आभाष नहीं होता | घटित होने के बाद हम उन्हीं घटनाओं के प्रति अधिक सक्रिय दिखाई देते हैं जिसके प्रति उसके वर्तमान होने से पहले लापरवाह होते हैं | कवि-हृदय वर्तमान को बड़े बारीकी से जीता है | जीने की स्थिति में बारीकी की पड़ताल अतीत के अनुभवों से उत्पन्न होती है | अतीत की घटनाएँ उसे वर्तमान के प्रति अधिक संवेदनशील बने रहने के लिए एक विशेष दृष्टि प्रदान करती हैं | वह इसी दृष्टि से भविष्य का रूप-संवरण करता है | समाज का नेतृत्व रूप-संवरण की इस प्रक्रिया से होकर गुजरती है | साहित्य को इसीलिए समाज का दर्पण कहा गया और कविता को मानव-जीवन का सबसे संवेदनशील हमसफर |
सामाजिक परिवेश में कविता का उत्पन्न होना अब महज कल्पना की प्रगाढ़ता भर नहीं कहा जा सकता | यह इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि कविता की रचना अब अनायास नहीं होती, सायास होती है | वह मन बहलाने का एक विकल्प न होकर परिवर्तन का एक संकल्प बनकर रची जा रही है | विकल्प की स्थिति में लापरवाही होती है | किसी भी स्थिति के प्रति गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार इसके केंद्र में होता है | ऐसी अवस्था में समय सापेक्ष घटनाओं से जूझने के बजाय उससे मुंह मोड़ लेने की प्रवृत्ति अधिक पायी जाती है | पलायनवादी प्रवृत्ति यहाँ प्रमुखता के साथ व्यंजित होती है | जबकि संकल्प के धरातल पर विकल्प का अभाव होता है | यहाँ जो है, जैसे है उसे करना है | अधूरा छोड़कर हटना नहीं, अपितु पूर्णता प्रदान करना है | पूर्णता के लिए व्यक्ति को संघर्ष करना होता है | संघर्ष के केंद्र में होने से पलायन के बनिस्बत यहाँ स्थायित्व की प्रबलता होती है | रचनाकार को किसी भी स्थिति से घबड़ाकर या मुंह मोड़कर हटने के बजाय प्रतिबद्ध होकर उसे झेलने और एक हद तक विजय प्राप्त करने के लिए तत्पर रहना पड़ता है |
तत्परता का यह भाव हिन्दी साहित्य के समकालीन कवियों में/आज के कवियों में यथार्थतः विद्यमान है | और यह सब कवियों द्वारा समाज और घटना के प्रति स्वयं के संकल्पबोध को अनुभव के धरातल पर व्यंजित करते हुए जनसामान्य के अनुभूति के साथ बने रहने की प्रतिबद्धता से संभव हुआ है | इस सन्दर्भ में प्रो० रतन कुमार पाण्डेय द्वारा समकालीन कवि एवं कविता के विषय में कही गयी यह उक्ति ठीक प्रमाणित होती है “समकालीन कविता का एक बड़ा हिस्सा संकल्पबोध और दायित्वबोध से जुड़कर आज हमारे सामने आ रहा है | इस कारण इन रचनाओं में सामाजिक परिवर्तन की अदम्य लालसा हमे दिखाई पड़ती है | यहाँ उपस्थित रचना-संसार मानवीय सरोकारों, सकारात्मक मूल्यों और आत्मीय सम्बन्धों का संसार है, जो पूंजीगत दबावों और इतर कारणों से निरंतर क्षरित हो रहा है | समकालीन कवि मानवीय मूल्यों और मानवीय न्याय के संघर्ष में अपनी रचना की उपयोगिता जांचना-परखना चाहता है |” 1
कविता के समकालीन परिदृश्य परिवेश और प्रवृत्तियाँ और वर्तमान जीवन-परिवेश में सामाजिक विकास के साथ-साथ घटनाओं की संख्या में कुछ अधिक वृद्धि महसूस की गयी है | ये घटनाएँ राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक धरातल पर अपने विशिष्ट एवं विविध रूप में हमारे सामने समय-समय पर उपस्थित होती रही हैं | जिस प्रकार की सामाजिकता की बात हमारे सिद्धांतों में आये दिन की जाती है उस सामाजिकता के सम्बन्ध में यह गौर करने का विषय है कि देश में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से लेकर आज तक घटित होने वाली समस्त घटनाओं में, जिसके केंद्र में आम आदमी और धर्म का मुद्दा विशेष तौर पर सुमार रहा है, व्यावहारिक धरातल पर सामाजिकता का भाव बहुत हद तक दूषित हुआ है | सामाजिक आकाओं की चर्चाओं में आम आदमी को जितनी तीव्र गति से शामिल करने की होड़ मची, मुख्य धारा से वह उतनी ही तीव्र गति से कटता गया | ऋतुराज की एक कविता है ‘हसरुद्दीन’ इसमें सच्चाई को अभिव्यक्त करने का प्रयास बड़े ही सलीके से किया गया है| कवि कहता है-
SAHITYASETU
नाटक एक ऐसी दृश्यकाव्य विधा है, जिसमें अनुकृति, अभिनय नृत्य, संगीत, संवाद और रस का नेत्रेन्द्रिय और श्रवणेन्द्रिय के माध्यम से लोकोत्तर आनंद उपलब्ध किया जाता है । नाटक दृश्य काव्य होने के नाते उसमें शिल्प एवं भाषा-संवादों पर विशेष बल दिया जाता है । शिल्प विधान के द्वारा नाटककार अपने नाटक को रंगमंच और समय के अनुरूप बनाकर पाठकों तथा प्रेक्षकों पर अपेक्षित प्रभाव डालने के योग्य बना पाते हैं । शिल्प शब्द का सामान्य अर्थ कारीगरी, रचना- कौशल होता है । परंतु साहित्य जगत में शिल्प का महत्व कला से जोड़ा जा सकता है । डॉ. नरनारायण राय द्वारा उद्धृत कथन में सिद्धनाथ कुमार ने शिल्प के बारे में लिखा हैं कि- “शिल्प वह कुशलता है जिसके द्वारा किसी वस्तु या कृति में सौंदर्य की सृष्टि होती है ।”[1] शिल्प विधान को गहराई से समझाने का प्रयास डॉ. नरनारायण राय ने किया है, उनका कहना है कि- “कच्चे माल को नाटक की भाषा में वस्तु कहते हैं जिसका सर्व विदित रूप कथानक है और संवाद, भाषा-शैली, अभिनय की निर्दिष्ट गतियाँ, ध्वनि एवं प्रकाश विषयक विशिष्ट निर्देश वेशभूषा निरूपण आदि वे साधन हैं जिन साधनों से वह वस्तु को नये रूप में इस प्रकार गढ़ता है कि उसमें नये सौंदर्य की सृष्टि हो सके ।”[2]
समकालीन हिन्दी नाटकों का शिल्प जहाँ एक ओर अपने पूर्ववर्ति नाटकों की तुलना में एक दम भिन्न, बहुआयामी, प्रयोगशील और दृश्यत्व गुण प्रधान है, वही दूसरी ओर इस पर पाश्चात्य नाट्य-शिल्प और भारतीय स्तर पर फैले रंग आन्दोलन का भी प्रभाव देखा जा सकता है ।
समकालीन हिन्दी नाटकों के शिल्प विधान की सबसे बड़ी विशेषता है, प्रयोगात्मक होना । नाटकों में प्रयोगों के अधिकाधिक होने के कारण तत्कालीन नाटक सामान्य मनुष्य के जीवन की व्याख्या करने लगा है । नाटक के अन्दर समय-समय पर परिवर्तन आता रहा है । प्रयोग विकास का स्वभाव है । प्रयोग, नव सृजन का धर्म होता है, इसलिए इसे प्रयोग-धर्मिता भी कहते हैं । हिन्दी नाटक-लेखन और परिवेश और प्रवृत्तियाँ रंगमंच सापेक्ष रुढ़ियों की नव प्रयोगशील प्रवृत्तियों के दौर से गुजर रहा है । प्रयोग के अनेक स्तरों से गुजर कर हिन्दी नाटक के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है । कथ्य और शिल्प दोनों में बदलाव आया है । इस बात से सहमत होकर डॉ.नीलिमा शर्मा द्वारा उद्धृत कथन में डॉ.चंद्र कहते है- “अब नाटक के लिए न स्थूल कथ्य चाहिए न काव्यात्मक भावुकता । अब तो नाटक यथार्थ की भूमि पर विचरने वाला आम आदमी है जिसे अपनी भाषा में अपनी बात पूरी ईमानदारी से कहनी है ।”[3]
समकालीन नाटकों के शिल्प की सब से बड़ी विशेषता है प्रयोग धर्मिता, जिसमें ऐतिहासिक-पौराणिक कथा को नये प्रयोग में समकालीन नाटककारों ने रखा है । नयी अनुभूति प्राचीन प्रतीकों की खोल ओढ़कर नाटकों के प्रदर्शन में अत्यन्त सुहावने दृश्य प्रस्तुत करती है । डॉ.लाल द्वारा रचित ‘एक सत्य हरिश्चन्द्र’ सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र के पौराणिक मिथक पर आधारित होते हुए भी समसामायिक स्थिति पर तीखा व्यंग्य करते हुए वर्तमान की अभिव्यक्त करता है । रोती एवं जीतन भी इसी बात का अनुभव करते हैं जीतन कहता है- जीतन-“ हम सब हरिश्चन्द्र हैं तुम्हारी सत्ताधारी राजनीति में । वहाँ राजा इन्द्र एक था, यहाँ राजा इन्द्र असंख्य हैं, पुलिस, अफसर, नेता, पूँजीपति, दलाल, गुण्डा, . यही है तुम्हारी राजनीति में ।”[4]
‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ नाटक मूलतः यथार्थवादी शैली तथा मनोवैज्ञानिक नाटक है, जिसमें सुरेन्द्र वर्मा ने ऐतिहासिक वातावरण में स्त्री-पुरूष के सम्बन्धों का विश्लेषण किया है । शिलवती कहती है-
शीलवती- “सब मिथ्या ! सब आडम्बर. सब पुस्तकीय ! ( उद्धत-सी) लेकिन मुझे पुस्तक नहीं जीना अब ! . मुझे जीवन जीना है ।”[5]
‘एक और द्रोणाचार्य’ नाटक में शंकर शेष ने महाभारत कालीन स्थितियों एवं पात्रों के माध्यम से आधुनिक परिवेश एवं चरित्रों को उद्घाटित करने का प्रयास किया है । एकलव्य और अर्जुन के संवादों में ये बात स्पष्ट हो जाती है –
एकलव्य- “आज आशीर्वाद दे रहे है या शाप ? . क्या आप इस अर्जुन से कभी उसका दाहिना हाथ मांग सकते हैं ? क्या आप भीम से उसकी भुजा मांग सकेंगे ?
अर्जुन- . इतिहास परिवेश और प्रवृत्तियाँ आपको कभी क्षमा नहीं करेगा ।”[6]
‘कबीरा खड़ा बजार में’ नाटक में भी भीष्म साहनी ने कबीर के माध्यम से आधुनिक व्यवस्था को उजागर किया है । स्वयं भीष्म साहनी भूमिका में लिकते है कि – “नाटक परिवेश और प्रवृत्तियाँ में उनके काल की धर्मान्धता, अनाचार, तानाशाही आदि के सामाजिक परिप्रेक्ष्य में उनके निर्भिक, सत्यान्वेषी, प्रखर व्यक्तित्व को दिखाने की कोशिश है।”7 इस प्रकार इतिहास या पौराणिक कथा के माध्यम से नये युग की बात कहने की कोशिश आलोच्य युग के नाटककारों ने की है ।
समकालीन नाटकों में लोककथा का भी भरपुर प्रयोग किया गया है । सुशीलकुमार सिंह के नाटक ‘सिंहासन खाली है’ मेँ एक कथा-रुढ़ी है- एक राजा ने न रहने पर दूसरे राजा की तलाश । नाटक के प्रारंभ में सूत्रधार घोशणा करता है कि सिंहासन खाली है । क्योंकि इस पर बैठने वाला राजा सत्य, अहिंसा और न्याय की हत्या करके भाग गया है । लोककथा शैली में मुद्राराक्षस कृत ‘आला अफसर’ मणिमधुकर कृत ‘दुलारीबाई’ भी महत्वपूर्ण लोक नाट्य शैली में लिखे गये नाटक हैं । कुल मिलाकर देखाजाय तो समकालीन हिन्दी नाटकों का कथा-शिल्प आधुनिक संवेदनाओं की स्थिति के अनुरूप सहज और स्वाभाविक है ।
संदर्भ संकेतः
1. नया नाटक उद्भव और विकास – डॉ. नरनारायण राय, पृ. 236
2. वही. पृ. 236
3. साठोत्तरी हिन्दी नाटक – डॉ. नीलिमा शर्मा, पृ. 25
4. एक सत्य हरिश्चन्द्र – डॉ. लाल, पृ. 57
5. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक – डॉ. सुरेन्द्र वर्मा, पृ. 74
6. एक और द्रोणाचार्य – डॉ. शंकर शेष, पृ. 54
7. कबिरा खड़ा बजार में – भीष्म साहनी, पृ. 12
जीव-जंतुओं की रोचक बातें
Solution for SCERT UP Board textbook कक्षा 5 हमारा परिवेश ” प्रकृति ” पाठ 5 जीव-जंतुओं की रोचक बातें solution pdf, | If you have query regarding Class 5 Hamara Parivesh ( Prakriti ) chapter 5 Jeev Jantuo ki Rochak Baate, please drop a comment below.
जीव-जंतुओं की रोचक बातें
Exercise ( अभ्यास )
प्रश्न ( 1 ) : किन्हीं दो जीवों के नाम लिखिए –
(क) जिनकी सूँघने की शक्ति तेज होती है – चींटी , बिल्ली
(ख) जिनकी सुनने की शक्ति तेज होती है – तेंदुआ , चीता
(ग) जिनके बाहरी कान नहीं होते हैं – साँप , केंचुआ
(घ) जो रात में देख सकते हैं – उल्लू , चीता
(ड.) जो दिन के समय सोते हैं – उल्लू , चमगादड़
प्रश्न (2) : सही वाक्य पर (✓) का चिह्न और गलत वाक्यों पर (✗) का चिह्न लगाएं –
(क) हम रंगों की पहचान स्पर्श द्वारा करते हैं | (✗)
(ख) कुत्ते की सुनने की शक्ति तेज होती है | (✓)
(ग) उल्लू दिन के समय सोते हैं | (✓)
(घ) हम स्वाद का अनुभव देखकर करते हैं | (✗)
(ड.) खरगोश अपने कानों से खतरों का अनुमान लगा लेते हैं |
(च) सांप के बाहरी कान नहीं होते हैं | (✓)
(छ) पक्षी चारों तरफ देखने के लिए अपनी गर्दन घुमा लेते हैं | (✓)
(ज) तेंदुआ अँधेरे में नहीं देख सकता है | (✗)
प्रश्न (3) : निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लिखिए –
(क) जमीन पर मीठा गिरने से चींटियाँ कैसे आ जाती हैं ?
उत्तर- चींटियों की सूंघने की शक्ति बहुत अधिक होती है | मीठे की गंध सूंघकर चींटियाँ वहां आ जाती हैं |
(ख) पक्षी अपनी गर्दन क्यों घुमाते हैं ?
उत्तर- ज्यादातर पक्षियों की आँखों की पुतली घूम नहीं सकती | इसलिए वे चारों तरफ देखने के लिए अपनी गर्दन घुमाते हैं |
(ग) कुत्तों का उपयोग अपराधियों को पकड़ने में क्यों किया जाता है ?
उत्तर – कुत्तों में सूघने की क्षमता बहुत तेज होती है | कुत्ते अपराधियों द्वारा प्रयोग में लायी गयी वस्तुओं को सूंघकर उनको पकड़ने में सहायता करते हैं |
(घ) खरगोश किस प्रकार खतरे का अनुमान लगाते परिवेश और प्रवृत्तियाँ हैं ?
उत्तर- खरगोश के बड़े कान मामूली ध्वनि को भी सुन सकते हैं , जो खतरों का अनुमान लगाने मेंसक्षम होते है | खरगोश के कान की विशेषता है कि उनके कान ध्वनि की दिशा में घूम जाते हैं |