चलती औसत ट्रेडिंग रणनीति

प्रवृत्ति निरंतरता

प्रवृत्ति निरंतरता

वंशानुक्रम के नियम व सिद्धांत || REET/CTET/HTET के लिए अति महत्वपूर्ण ||

विकासवादी लैमार्क ने कहा है कि, “व्यक्तियों द्वारा अपने जीवन में जो कुछ भी अर्जित किया जाता है वह उनके द्वारा उत्पन्न किए जाने वाले व्यक्तियों को संक्रमित किया जाता है” | लैमार्क के इस कथन की पुष्टि मैकदुग्गल और पावलव ने चूहों पर, हैरिसन ने पतंगों पर परीक्षण करके की |

उदहारण के तौर पर , जैसे जिराफ पशु की गर्दन पहले घोड़े के समान थी परंतु कुछ विशेष परिस्थितियों के कारण वह लंबी हो गई और कालांतर में उसकी गर्दन लंबी होने का गुण अगली पीढ़ी में संक्रमित होता है |

  1. मेंडल का सिद्धांत( ग्रेगर जॉन मेंडल,20 जुलाई प्रवृत्ति निरंतरता 1822- 06 जनवरी1884 ) :-मेंडल वनस्पति शास्त्री थे जो कि ऑस्ट्रेया के निवासी थे | इस नियम के अनुसार वर्णसंकर प्राणी या वस्तुएं अपने मौलिक या सामान्य रूप की ओर अग्रसर होती है | मेंडल ने मटर के पौधों और काले या सफेद चूहों पर प्रयोग किए थे |

इस नियम को चेकोस्लोवाकिया के एक पादरी मेंडल ने प्रतिपादित किया- उसने अपने गिरजे के बगीचे में बड़ी और छोटी मटर बराबर संख्या में मिलाकर वही तथा उगने वाली मटरों को फिर कई बार ऐसे ही बोया तो अंत में नतीजे उगने वाली शुद्ध मटर ( वास्तविक ) थी | इन्हें आनुवंशिकी का जनक भी कहते हैं |

  1. बीजकोषों की निरंतरता का सिद्धांत :- इस नियम के प्रवृत्ति निरंतरता प्रतिपादक बिजमैन थे जो कि जर्मनी के थे | बिजमैन का कथन है कि “ बीजकोषों का कार्य केवल उत्पादक कोषों का निर्माण करना है, जो बीजकोष को उस बालक को अपने माता-पिता से मिलता है, उसे वह अगली पीढी को हस्तांतरित कर देता है | इस प्रकार बीजकोष पीढ़ी- दर- पीढ़ी चलता रहता है |” इस सिद्धांत के अनुसार शरीर का निर्माण करने वाला जनन-द्रव्य/ बीजकोष कभी नष्ट नहीं होता है | इस सिद्धांत की पुष्टि हेतु बीजमैंन ने कुछ चूहों को लिया और उनकी पूछे काट दी | इस प्रकार वह कई पीढ़ियों तक पूछे काटता रहा किंतु किसी भी पीढ़ी में कोई पूछ विहीन चूहा पैदा नहीं हुआ |

अन्य उदाहरण से यदि हम समझे जैसे एक मां जो कि किसी ब्यूटी पार्लर की मदद से अपने बालों को घुंघराले करवा लेती है, तो वह अपने बालों का घुंघरालापन वंशक्रम विरासत के रूप में अपनी बेटी को नहीं दे सकती है |

राष्ट्रीय एकता और धार्मिक सद्भाव

- राष्ट्रीय एकता और देश के सभी धार्मिक समुदायों की सद्भावना की जरूरत सदा से रही है.

- मौजूदा दौर में तो यह जरूरत और बढ़ गई है. देश की सुरक्षा के लिए चुनौतियां बढ़ गई हैं और इस हालत में देश की मजबूती बढ़ाने का सबसे असरदार उपाय है-देश की एकता व विभिन्न समुदायों की परस्पर सद्भावना को बढ़ाना.

- राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने स्वयं इस जरूरत को हाल के समय में बार-बार रेखांकित किया है. गहरी चिंता का विषय है कि जहां एक विभिन्न समुदायों की आपसी एकता और सद्भावना की जरूरत बढ़ रही है , वहां ऐसे नाजुक समय में ही विभिन्न स्वार्थी व संकीर्ण संगठनों व व्यक्तियों ने एकता में दरारें उत्पन्न करने के अपने कुप्रयास तेज कर दिए हैं.

- कभी कोई बहुत भड़काने वाला बयान दे दिया जाता है तो कभी किसी पर हमला कर दिया जाता है. कभी किसी धर्मग्रंथ को क्षतिग्रस्त किया जाता है तो कभी धर्मस्थान को. इस तरह , कभी पंजाब में तो कभी महाराष्ट्र में , कभी उत्तर प्रदेश तो कभी हरियाणा में , तरह-तरह से देश की एकता को क्षतिग्रस्त प्रवृत्ति निरंतरता करने वाले कांड सांप्रदायिक व कट्टर तत्वों द्वारा बार-बार किए जा रहे हैं.

- इसके बावजूद यह सच्चाई आज तक अपनी जगह पर कायम है कि जनसाधारण अमन-शांति चाहते हैं. वे चाहते हैं कि उन्हें अपना जीवन बेहतर करने व प्रगति के पर्याप्त अवसर मिलें. वे यह भी समझते हैं कि सांप्रदायिक हिंसा व तनाव भड़कने से देश व समाज की प्रगति में बाधा पड़ती है.

- ऐसी समझ व्यापक स्तर पर होने के बावजूद संकीर्ण व सांप्रदायिक सोच के संगठन बड़ी चालाकी से तनाव व तरह-तरह के संदेह उत्पन्न कराते हैं. वे ऐसा प्रचार-प्रसार बहुत चालाकी से करते हैं , जिनसे समस्याओं के बुनियादी कारण छिप जाएं व समस्याओं के लिए किसी अन्य समुदाय को दोष देने की प्रवृत्ति बढ़ जाए. इसके लिए बड़े योजनाबद्ध ढंग से तैयारी की जाती है कि किस तरह का प्रचार-प्रसार करना है.

- इस प्रयास में तथ्यों , मिथकों , मनगढ़ंतत बातों , भ्रांतियों का मिला-जुला प्रयास केवल इस मकसद से किया जाता है कि कठिनाइयों के लिए दोष दूसरे धार्मिक-जातीय समुदायों को दिया जा सके. इस तरह के संगठनों के प्रयास निरंतरता से चलते रहते हैं जबकि अमन-शांति चाहने वाले संगठनों के प्रयास में इतनी निरंतरता नहीं देखी गई है.

- प्रवृत्ति निरंतरता यह हमारे समाज की एक बड़ी कमजोरी है कि जो अनुचित प्रचार कर रहे हैं , वे निरंतरता से सक्रिय हैं. जबकि जो उचित व जरूरी प्रचार-प्रसार कर रहे हैं , वे विशेष अवसरों पर ही अधिक सक्रिय होते हैं. जरूरत इस बात की है कि एक ऐसा अमन-शांति का देशव्यापी आंदोलन या अभियान हो जो निरंतरता से सक्रिय रहे. पर ऐसा कोई व्यापक अभियान अभी तक सक्रिय हुआ नहीं है और सरकारों की ओर से भी इस कमी को दूर करने का कोई महत्त्वपूर्ण प्रयास हुआ नहीं है.

- संकीर्ण व सांप्रदायिक तत्व सक्रिय तो निरंतर रहते हैं पर वे बड़ी समस्या तभी बनते हैं , जब उन्हें अपने लिए पारिस्थितियां विशेष तौर पर अनुकूल मिलती हैं. जब उन्हें लगता है कि उनके विरुद्ध कोई विधिसम्मत कार्यवाही नहीं होगी और असरदार कदम नहीं उठाए जाएंगे , इस स्थिति में वे समाज पर अधिक हावी होने का प्रयास करते हैं. इस समय देश कुछ ऐसी ही स्थिति से गुजर रहा है.

- मौजूदा दौर में संकीर्ण , सांप्रदायिक तत्वों के अनेक बेहद हानिकारक परिणाम सामने आ रहे हैं. देश के अनेक भागों में विभिन्न समुदायों के लिए जीवन अधिक असुरक्षित हो गया है. अपनी सुरक्षा को लेकर लोग तनावग्रस्त जीवन जीने को मजबूर हैं.

- सभी समुदायों को न केवल अमन-शांति व सुरक्षा का माहौल मिलना चाहिए , अपितु साथ में समता व न्याय भी मिलने चाहिए. संविधान ने धर्म के आधार पर किसी भी भेदभाव को मजबूती से अस्वीकृत कर दिया , सभी समुदायों की धार्मिक स्वतंत्रता व कानून के सामने समानता का पूरा आश्वासन दिया है.

- समता व न्याय के इन संवैधानिक सिद्धांतों के आधार पर ही अमन-शांति स्थापित होनी चाहिए. भारत के सभी धार्मिक समुदाय अपनी सुरक्षा व समान अधिकारों के लिए किसी के मोहताज नहीं हैं , किसी पर निर्भर नहीं हैं. अपितु यह समानता व सुरक्षा तो उनका संवैधानिक अधिकार है.

- पर सांप्रदायिक तत्व इन संवैधानिक प्रावधानों का सम्मान नहीं करते हैं. वे खुलेआम अपने से अलग अन्य धार्मिक समुदायों को अपने खान-पान , रस्मों-रिवाज आदि में बदलाव करने को कहते हैं या इसके लिए जबरदस्ती करते हैं , अनुचित व हिंसक तौर-तरीकों से कुछ समुदायों में जो असुरक्षा उत्पन्न की जा रही है तथा उनसे जो अन्याय हो रहा है , उसका दुष्परिणाम यह हो सकता है कि इन समुदायों के कुछ बुरी तरह आहत युवाओं को राष्ट्र-विरोधी तत्व अपनी ओर आकषिर्त करने का प्रयास करें. ऐसे कुप्रयास उस समय तक कभी सफल नहीं होंगे , जब तक सब समुदायों को सुरक्षा , न्याय व समता का आश्वासन हो.

- तीसरा दुष्परिणाम यह है कि इस तरह के बढ़ते सांप्रदायिक तनावों के कारण प्रवृत्ति निरंतरता वैसा सामाजिक माहौल नहीं बन सकेगा , जो टिकाऊ तथा व्यापक आर्थिक विकास के लिए जरूरी है. तनावों के माहौल में आर्थिक निवेश में कमी आती है. देश के विभिन्न समुदायों से कुशल श्रम , हुनर , उद्यम व पूंजी के लिए अधिकतम सहयोग प्राप्त नहीं हो पाता है.
- तरह-तरह के आर्थिक विकास के कार्यों में बाधा पंहुचती है. इस तरह सामाजिक दुख-दर्द व तनावों को कम करने के लिए , सामाजिक समरसता को बढ़ाने के लिए , राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूत करने के लिए व आर्थिक विकास हेतु अनुकूल सामाजिक माहौल बनाने के लिए सभी दृष्टिकोणों से राष्ट्रीय एकता व सद्भावना को उच्च प्राथमिकता देना जरूरी है.

- केन्द्र व राज्य सरकारों को राष्ट्रीय एकता के लिए निरंतरता से कार्य करने चाहिए व साथ में राष्ट्रीय एकता तोड़ने वाले सभी व्यक्तियों व संस्थानों के विरुद्ध असरदार कार्यवाही करनी चाहिए.

Sharad Pawar Comment on Rahul Gandhi: ओबामा के बाद अब राहुल गांधी पर शरद पवार का कमेंट, बोले- राहुल में अभी.

यह पूछे जाने पर कि क्या देश राहुल गांधी को नेता मानने के लिए तैयार है, तो पवार ने कहा कि इस संबंध में कुछ सवाल हैं.

Published: December 4, 2020 12:41 AM IST

NCP chief Sharad Pawar

पुणे: पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की भारतीय राजनीति में कार्यशैली को लेकर अक्सर कई तरह की बातें होती रहती हैं. हाल ही में पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की टिप्पणी के बाद राहुल की प्रवृत्ति और उनेक तौर तरीकों को लेकर खूब बाते कहीं गईं. अब एक बार फिर से राहुल को लेकर बहस छिड़ गई है. इस बार उनके बारे में किसी और पार्टी के नेता ने नहीं बल्कि में एनसीपी चीफ शरद पवार ने बड़ी बात कही है.

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राष्ट्रीय नेता के रूप प्रवृत्ति निरंतरता में राहुल गांधी की साख पर टिप्पणी करते हुए राकांपा प्रमुख शरद पवार ने बृहस्पतिवार को कहा कि उनमें कुछ हद तक ‘निरंतरता’ की कमी लगती है. कांग्रेस के सहयोगी पवार ने हालांकि कांग्रेस नेता पर बराक ओबामा की टिप्पणियों को लेकर कड़ी आपत्ति जताई.

पवार का साक्षात्कार लोकमत मीडिया के अध्यक्ष और पूर्व सांसद विजय दर्डा ने किया. यह पूछे जाने पर कि क्या देश राहुल गांधी को नेता मानने के लिए तैयार है, तो पवार ने कहा कि इस संबंध में कुछ सवाल हैं. उनमें निरंतरता की कमी लगती है.

ओबामा ने हाल ही में प्रकाशित अपने संस्मरण में कहा था कि कांग्रेस नेता शिक्षक को प्रभावित करने के लिए उस उत्सुक छात्र की तरह लगते हैं जिसमें विषय में महारत हासिल करने के लिए योग्यता और जुनून की कमी है . इस बारे में पूछे जाने पर पवार ने कहा कि यह जरूरी नहीं है कि हम सभी के विचार को स्वीकार करें.

उन्होंने कहा, ‘‘मैं अपने देश के नेतृत्व के बारे में कुछ भी कह सकता हूं. लेकिन मैं दूसरे देश के नेतृत्व के बारे में बात नहीं करूंगा. किसी को उस सीमा को बनाए रखना चाहिए. मुझे लगता है कि ओबामा ने उस सीमा को पार कर लिया.”

कांग्रेस के भविष्य और यह पूछे जाने पर कि क्या राहुल गांधी पार्टी के लिए ‘बाधा’ बन रहे हैं तो पवार प्रवृत्ति निरंतरता ने कहा कि किसी भी पार्टी का नेतृत्व इस बात पर निर्भर करता है कि संगठन के भीतर उन्हें कैसे स्वीकार किया जाता है.

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विश्व कप 2022: पुरूष फुटबॉल में सामाजिक सक्रियता और सहयोगी भावना को दबाना ठीक नहीं

2022 के पुरुषों के फीफा विश्व कप टूर्नामेंट में स्टैंड में गूंजने वाली एक परिचित कहावत है कि वास्तव में जीतना ही मायने रखता है।

Image: AP

2022 के पुरुषों के फीफा विश्व कप टूर्नामेंट में स्टैंड में गूंजने वाली एक परिचित कहावत है कि वास्तव में जीतना ही मायने रखता है। लेकिन खिलाड़ियों में विभिन्न मुद्दों पर आवाज उठाना और एकजुटता दिखाना इस बात का प्रतीक है कि खिलाड़ियों में मैदान पर और उसके बाहर सामाजिक जिम्मेदारी प्रदर्शित करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है।

फीफा, हालांकि इस बात के लिए फिक्रमंद है कि खेल सक्रियता मैदान में प्रवेश नहीं करने पाए।उदाहरण के लिए, डेनिश फ़ुटबॉल टीम का संदेश ‘‘सभी के लिए मानवाधिकार’’, खेल निकाय को नागवार गुजरा और उसके अनुसार यह फीफा के नियमों का उल्लंघन करने वाला एक राजनीतिक बयान है।इसी तरह, इंग्लैंड के उद्घाटन मैच से कुछ घंटे पहले, यह घोषणा की गई कि इंग्लैंड के कप्तान हैरी केन और सात अन्य यूरोपीय टीमें अगर ‘‘वन लव’’ का आर्मबैंड पहनती हैं तो वह फीफा के नियमों का उल्लंघन करेंगी

फीफा ने कहा कि खिलाड़ियों को किसी भी राजनीतिक बयान के बारे में सतर्क रहना चाहिए।ये नियोजित विरोध और बाद में उन से पीछे हटना पुरुष फ़ुटबॉल में सामाजिक मुद्दों के प्रति आवाज उठाने और एकजुटता प्रदर्शित करने के आसपास तनाव का संकेत है - विशेष रूप से सेक्स, लिंग और यौन मामलों में।

पुरुषों के खेल और सामाजिक सक्रियता

खेलों का राजनीतिक सक्रियता का एक लंबा इतिहास रहा है। टॉमी स्मिथ और जॉन कार्लोस ने 1968 के ओलंपिक खेलों में अमेरिका और दुनिया भर में नागरिक अधिकारों के आंदोलनों के समर्थन में मुट्ठियां भींचकर अपने हाथ ऊपर उठाए थे।2016 की बात करें तो पुलिस क्रूरता और नस्लीय असमानता का विरोध करते हुए अमेरिकी राष्ट्रगान के दौरान कॉलिन कैपरनिक अपने घुटनों पर बैठ गए।पुरुषों की फ़ुटबॉल में, खिलाड़ी ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलनों के समर्थन में घुटने के बल बैठ गए। 2020 में जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के बाद यह आंदोलन हुए।

नस्लीय असमानता के मामलों में, पुरुष खेलों और फ़ुटबॉल प्रतियोगिताओं के दौरान प्रतीकात्मक समर्थन किए गए।लिंग और यौन विविधता के मामलों में, स्टोनवेल के रेनबो लेस अभियान ने इंग्लिश प्रीमियर लीग में कुछ जोर पकड़ा था।कनाडा में, प्राइड टेप कैंपेन ने समावेशी खेल वातावरण के प्रति समर्थन दिखाने की कुछ हॉकी खिलाड़ियों की इच्छा का भी प्रदर्शन किया।

इस विश्व कप में कनाडा 36 वर्षों में पहली बार फ़ुटबॉल के सबसे बड़े मंच पर प्रतिस्पर्धा कर रहा है।कनाडा सॉकर हाल ही में मानवाधिकारों के मुद्दों पर कार्रवाई की कमी के कारण आलोचनाओं का शिकार रहा है।टूर्नामेंट की पूर्व संध्या पर, कनाडा सॉकर ने यू कैन प्ले के साथ साझेदारी की घोषणा की, जो खेल में होमोफोबिया से निपटने के लिए समर्पित प्रवृत्ति निरंतरता एक समूह है।कनाडा सॉकर के महासचिव अर्ल कोक्रेन ने कहा, ‘‘इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपकी यौन अभिमुखता, लिंग पहचान क्या है या आप किसे प्यार करना चाहते हैं, इस खेल में आपके लिए जगह है।’’

हालांकि, कतर को इस साल के विश्व कप का मेजबान बनाए जाने से बहुत पहले पुरुष फ़ुटबॉल को सहयोगी को लेकर समस्या थी।विरोध प्रदर्शन करने की इच्छा रखने वाले खिलाड़ियों और टीमों के खिलाफ दंडात्मक फैसले सभी के लिए जगह होने जैसी खेल भावना को कमजोर करते हैं।खेलों से राजनीति को दूर करने के बजाय, फ़ुटबॉल के शासी निकायों द्वारा की गई ये कार्रवाइयाँ उन तरीकों की ओर ध्यान आकर्षित करती हैं, जिनकी वजह से खेल राजनीतिक खेलों में उलझे हुए हैं।

विभन्न मुद्दों पर टीमों, खिलाड़ियों और संगठनों की चुप्पी और उन्हें चुप कराना फीफा और पुरुषों की फ़ुटबॉल में परेशान करने वाली संस्कृति का एक उदाहरण है।

फ़ुटबॉल, मर्दानगी और होमोफोबिया

पुरुषों के खेल ऐतिहासिक रूप से मर्दाना रहे हैं, जहाँ लड़के पुरुष बनते हैं और पुरुष अपनी मर्दानगी साबित करते हैं।प्रतिरोध के शक्तिशाली तरीकों के माध्यम से, महिलाओं और हाशिए के अन्य समूहों ने असमानता के बीच अपना जायज मुकाम हासिल करने के लिए संघर्ष किया है। हालाँकि, खेल, विशेष रूप से पुरुषों के खेल, एक बहिष्करण स्थान बना हुआ है।खुले तौर पर समलैंगिक या ट्रांसजेंडर पेशेवर पुरुष फुटबॉल खिलाड़ियों की कमी इस बहिष्करण की पुष्टि करती है।जो खिलाड़ी अपनी सेक्सुएलिटी के बारे में खुलकर बात करते हैं, उनके साहस की तारीफ करना सही है।

लेकिन तथ्य यह है कि एलजीबीटीआईक्यू+ खिलाड़ियों के लिए इस तरह के साहस की आवश्यकता केवल पुरुषों के फ़ुटबॉल में स्थापित मानदंडों की पुष्टि करती है जो उन पुरुषों को हाशिए पर रखते हैं जो होमोफोबिक, ट्रांसफ़ोबिक और गलत प्रवृत्ति निरंतरता अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते हैं।अनुसंधान ने पुरुषों और लड़कों पर मर्दानगी के होमोफोबिक, ट्रांसफोबिक और गलत रूपों से होने वाले नुकसान को दिखाया है।हमने हॉकी कनाडा द्वारा यौन हमलों और उसके बाद के कुप्रबंधन में हानिकारक मर्दानगी की अनदेखी की कीमत देखी है।मर्दानगी और लड़कपन के पारंपरिक कोड ने खेल क्षेत्रों में प्रवेश किया है, जिससे वे बहिष्कृत हो गए हैं और सभी के खेलने के स्थान नहीं हैं।

मौन के परिणाम

फीफा के अध्यक्ष गिआनी इन्फेंटिनो और फीफा महासचिव फातमा समौरा ने कतर के मानवाधिकार रिकॉर्ड की आलोचनाओं का जवाब देते हुए कहा कि फुटबॉल को ‘‘हर मौजूदा वैचारिक या राजनीतिक लड़ाई में नहीं घसीटा जाना चाहिए।’’पुरुषों की फ़ुटबॉल के पास अपने स्वयं के प्रश्न हैं, न केवल विश्व कप के आसपास, बल्कि इसके चारों ओर सामाजिक सक्रियता और एलजीबीटीआईक्यू + लोगों और महिलाओं के साथ जुड़ाव की कमी है।

खेल, विशेष रूप से फुटबॉल जैसे लोकप्रिय खेल, पुरुषों और लड़कों के लिए समावेशिता और स्वीकृति के शक्तिशाली प्रतीक होने की क्षमता रखते हैं।जब खिलाड़ियों और टीमों को बोलने पर चुप कराया जाता है और अनुशासित किया जाता है, तो यह खेल की संस्कृति के साथ-साथ पुरुषत्व के बारे में एक मजबूत संदेश भेजता है।

कतर से आगे

पुरुषों की फ़ुटबॉल में प्राथमिकताओं में बदलाव की ज़रूरत है। फ़ुटबॉल के शासी निकायों के लिए, पैसा प्राथमिकता है; टीमों और खिलाड़ियों के लिए, प्राथमिकता जीत है।अगर ऐसा ही रहा, तो पुरुषों की फ़ुटबॉल में सामाजिक सक्रियता कम होती रहेगी।

पुरुषों की फ़ुटबॉल में खेल संस्कृति को अब अच्छी शुरुआत के लिए चुनौती देने और बदलने की ज़रूरत है - और हमें यह मूर्ख नहीं बनना चाहिए कि कतर से आगे बढ़ने का मतलब पुरुषों की फ़ुटबॉल में इन मुद्दों से आगे बढ़ना है।मर्दानगी और ‘‘हम इसे जीतने के लिए इसमें हैं’’ के विलक्षण आख्यान को खिलाड़ियों की जागरूकता को शांत करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।

इसके बजाय, खेल एक ऐसी संस्कृति होनी चाहिए जो न केवल विजेताओं की अगुवाई करे, बल्कि एक ऐसी संस्कृति होनी चाहिए जो समावेश, स्वीकृति और सक्रियता में निहित प्रतिस्पर्धा की भावना को प्रदर्शित करे।

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